पद
कुर्सी पर विराजे वो
पद ने दी प्रतिष्ठा
करामात मौके की वो
आसन दे गयी निष्ठा
बदले बदले से हो गए वो
अंदाज़ हो गयी विशिष्ठा
औरों से भिन्न जैसे वो
मति हो गयी भ्रष्टा
साहब साहिबा बन गए थे वो
चलना बोलना बदला
रौब झाड़ने लगे ऐसे वो
करें गर कोई चेष्टा
बातों मेँ कभी अंगारे
बर्ताव मेँ कभी घमंड
रवैये में थोड़ा ग़ुरूर
भूल गए जनाब
काम लोगोंके ज़रूर
भावों के तरंगों मेँ बह
कभी हठी कभी दम्भ
हर पद का वक़्त गुज़रा
निवृत्ति पर हुए दंग
ना पद रहा ना कुर्सी
ना ओहदा रहा ना रूतबा
हताश से रहते वो
चेहरे पर थोड़ी चिंता
याद कर सुनहरा अतीत
मन हो जाता व्यथित
काल असीम अनंत
पद मात्र क्षणिक
याद रखे इस बात को
बलवान दृढ और प्रबल
सार्थक बनेगा जीवन
पद पद कुशल मंगल....
मन विमल
Too good, Vimla..reminded me of ' uneasy lies the head that wears the crown'...if only the 'ephemerality' is remembered when the crown is on the head!
ReplyDeleteI am overwhelmed by your versatility!
Thank you. From you this means a lot ....
DeleteYou have put the message in the form of poem so aptly mam...All should behave beyond their formal positions...As humans..
ReplyDeleteThank you Sush....
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