धागे पर बंधा
लटकता पेंड्यूलम...
घड़ी की सुई सा
ना रुकता
ना थमता
बस चलता रेहता
इस ओर से उस ओर
इस छोर से उस छोर
बन बरखा की बूँद
कभी यहाँ कभी वहाँ
या आँसूओं का पतन
कभी इस आंख कभी उस
रुकने को आतुर
होने को स्थिर
पलकों की छाओं में
या फिर अचल
सुरक्षित बाहों में
ना तरंगती इस तरह
दर दर भटक
ना उछलती कभी
डाल डाल पर
भावविभोर
ना चलती बिना थमे
इस डगर उस डगर
इसी आस में
की वो थामे
और मैं रुक जाऊं
सदा के लिए
उनके पास
हाँ वो रोक दे मुझे
भावविभोर
ना चलती बिना थमे
इस डगर उस डगर
इसी आस में
की वो थामे
और मैं रुक जाऊं
सदा के लिए
उनके पास
हाँ वो रोक दे मुझे
और मेरा जीवन रुपी
पेंड्यूलम...
पेंड्यूलम...
ठीक उसी वक्त
उठती है मन में
एक और आवाज़
पूछती हैँ मुझे
पुचकारती
क्यों हो जाती हो उत्तेजित
क्यों नहीं संभल पाती
क्यों नहीं समझती
तुम ही से संभलेगा
तुम्हारा जीवन रुपी पेंड्यूलम
आशा निराशा
मोह पाश
माया ममता
लोभ क्रोध
इर्षा जलन
घृणा प्रेम
असंख्य भाव
उजागर होते तुमसे
सिर्फ तुम्हारे मन से
बिखरने से रोकना हैँ
गर स्वयं को
तो पहले संभालो
अपना ह्रदय रूपी पेंड्यूलम
संभालो अपने मन को
रखो संयम
और देखो अपनेआप ही
स्थिर हो जाएगा
जीवन रुपी पेंड्यूलम....
मन विमल
Khoobsoorat! 🌹🌹🌹🌹
ReplyDeleteKup Sundar
ReplyDeleteWow. This is so true.
ReplyDelete