साथ औऱ साथी...
घूँघट की आड़ से
रूकावटों को लाँघ के
देखा जो पीछे
तो दिखी मैं खड़ी
पेड़ों के पीछे
दरवाज़े के कटहरे पे
चलने को आतुर
उड़ने को उत्सुक
लिए आँखों में सपने
मन में विश्वास
की दोगे तुम साथ
उसी तरह
जैसे मैंने दिया साथ
घर हो या वनवास
बिनसोचे
निकली थी साथ तुम्हारे...
तुम भी साथ दोगे ना मेरा
मेरे अस्तित्व की तलाश में?
क्योंकि सच यही हैं की
सफर तुम्हारा या मेरा
साथी के बिना अधूरा हैं
औऱ साथ मिल जाए तो पूर्ण हैं...
मन विमल
हिचकिचाहट, उत्सुकता और साथी के साथ देने की उम्मीद दर्शाती सुंदर कविता!
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